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धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद ...

इस ब्लॉगपोस्ट को हिंदी में लिखने का एक मुख्य कारण ये है कि इसका सीधा सम्बन्ध हम और हमारे अपने लोगों से है । इसे आगे पढ़ने से पहले आप से एक विनती है कि इसे आप किसी धर्म, जाति, संप्रदाय या विचारधारा के संकीर्ण लेंस से ना देखें । इसे केवल एक भारतीय नागरिक की नज़र से पढ़ें , जिसका केवल हिंदुस्तान और उसके संवैधानिक नागरिक होने के अलावा और कोई परिचय नहीं है । क्यूंकि यह एक गहरा विषय है और इस पर कोई भी टिप्पणी संक्षिप्त में करना मूर्खता होगी , इसीलिए हम इसे दो भागों में समझने की कोशशि करेंगे ।

तो पहले शुरू करते हैं , ये दो चार बड़े-बड़े शब्दों को लेकर आजकल जो ज़बरदस्त बहस चल रही है : धर्मनिरपेक्षता, असहिष्णुता और राष्ट्रवाद इत्यादि ... इस बहस के मुद्दे पर  कुछ विचार यहाँ साझा करने का प्रयत्न है।

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धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा शब्द है जिसकी संकल्पना आज शायद ही दुनिया के किसी और देश में संवैधानिक या सामाजिक रूप में देखने और सुनने को मिलेगी । ऐसा लगता है जैसे इस शब्द को अपने आप में पूर्ण रूप से लागू करने का सारा ठेका सिर्फ और सिर्फ भारतवर्ष ने ले लिया है । 

धर्मनिरपेक्षता एक बहुत बड़ा मज़ाक बन कर रह गया है, जिसके चलते विश्व के अत्यधिक रूढ़िवादी और कट्टरपंथी राज्य और समाज भी अब भारतवर्ष पर 'धर्मनिरपेक्षता' की फिरकी लेने लगे हैं । ऐसा प्रतीत होता जा रहा है जैसे आज पूरे विश्व को भारत के धर्मनिरपेक्ष बने रहने की बहुत चिंता सता रही है । कुछ उसी प्रकार से जैसे अमरीका को पूरे विश्व में जनतंत्र की क्रांति लाने का निर्विवाद ठेका मिला हुआ है ।

पिछले साठ वर्षों से धर्मनिरपेक्षता को लेकर भारत में बहुत ही घृणित राजनीती खेली गयी है और इसमें सभी राजनीतिक दल बराबरी के हिस्सेदार रहे हैं । पिछले साठ साल का इतिहास गवाह है कि धर्मनिरपेक्षता को संवैधानिक स्वीकृति देने के बावजूद किसी जाति या सम्प्रदाय का कोई भला नहीं हुआ है । धर्मनिरपेक्षता को लेकर हमारे राजनेताओं ने सिर्फ वोट बटोरे हैं और देश में एक बहुत ही चिंताजनक अलगाववादी समस्या पैदा की है । और इस परियोजना में हमारे देश का एक बहुत ही पढ़ा-लिखा और संभ्रांतवादी (elitist) लेकिन छोटा वर्ग, अत्यधिक उत्सुकता के साथ सबसे आगे खड़े होकर 'धर्मनिरपेक्षता' का आव्हान करता चला आ रहा है । ये बुद्धू-जीवी वर्ग अब अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में भी भारतवर्ष के खिलाफ 'उपयोगी बेवकूफ' (Useful Idiot) का किरदार बखूबी निभा रहा है ।

धर्मनिरपेक्षता - इस शब्द का जन्म पश्चिमी राजनीती और प्रजातन्त्रवादी विचारधारा के आंदोलन के अंतर्गत हुआ था । जब ईसाई धर्म यूरोप में अपनी चरम सीमा पर था और चर्च के  निरंकुश शासन में अपने ही राज्य के लोगों का हनन करते हुए उन्हें एक अँधेरे भविष्य की तरफ धकेला जा रहा था , तब 18 वीं सदी में एक क्रन्तिकारी आंदोलन शुरू हुआ जिसका नाम था - "ज्ञान का दौर" (Age of Enlightenment) । इस आंदोलन के अंतर्गत चर्च (गिरिजाघर) के हनन और संपूर्ण एकाधिपत्य शासन से परेशान तत्कालीन यूरोप की जनता चर्च के खिलाफ सवाल उठाने लगी थी । इस आंदोलन ने पूरे तत्कालीन यूरोप की जनता को चर्च के परंपरागत सिद्धांतों और हठधर्मिता से अलग एक नया मार्ग दिखाया , जिसके अंतर्गत अनेक उदारवादी दार्शनिक और सामाजिक सोच पैदा हुए । इस नए दौर के क्रन्तिकारी दृष्टिकोण और आंदोलन के परिणाम स्वरुप चर्च को राज्य से अलग करने की ज़बरदस्त पुकार पूरे यूरोप में गूँज उठी । इस नई सोच और क्रांति के फलस्वरूप पैदा हुई नए दौर की शासन प्रणाली को हम आगे चल कर धर्मनिरपेक्षता के नाम से जानने लगे । तो ये था धर्मनिरपेक्षता का बहुत ही संक्षिप्त में ऐतिहासिक विवरण , जिसका सीधा-साधा  मतलब  होता है - चर्च का शासन से पृथक्करण । 

इस ऐतिहासिक विवरण को जानने के बाद ये समझना बहुत आसान हो जाता है कि आज के वर्तमान 'भारतीय' परिपेक्ष में धर्मनिरपेक्षता एक बहुत ही निराधार और असंगत संकल्पना है । ना तो कभी भारतवर्ष में किसी मंदिर, मस्जिद या गिरिजाघर का शासन था, ना है और ना ही आगे रहने की दूर-दूर तक कोई सम्भावना है ।  तो फिर सवाल ये उठता है कि धर्मनिरपेक्षता को लेकर इतना विचार-विमर्श और वार्तालाप क्यों? 

रही बात बाकी भारी-भरकम शब्दावली की: उदारवाद, बहुलवाद, असहिष्णुता और राष्ट्रवाद ... तो इन सब अवधारणाओं (concepts) का जन्म भी 18 वीं शताब्दी के तत्कालीन यूरोप में "ज्ञान का दौर" (Age of Enlightenment) नामक आंदोलन के फलस्वरूप ही हुआ था । वो सामाजिक परिस्थिति जिसके अंतरगत ये क्रन्तिकारी आंदोलन शुरू हुआ, उसे समझने के लिए उस समय का इतिहास और ईसाई धर्म के अंतर्गत चर्च द्वारा हनन और 'धार्मिक कट्टरपंथी' से प्रेरित शासन प्रणाली को समझना बहुत जरूरी है । तभी हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि इन शब्दों और अवधारणाओं का पहले से ही 'अत्यधिक विकसित और उदारवादी' ढाई हज़ार साल पुरानी भारतीय सभ्यता की शासन प्रणाली के लिए कोई उपयोग नहीं है । यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि अंग्रेजी में कहा जाये कि ये शब्दावली एक "Old wine in new bottle" से बढ़कर हमारे लिए और कुछ नहीं है । इसको पूर्ण रूप से और सही परिपेक्ष में समझने के लिए हमें भारत का सही इतिहास भी पढ़ना पड़ेगा , जो दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा प्रणाली में शामिल नहीं किया गया है । हमारे राजनेताओं और उनके बुद्धू-जीवी नौकरों ने इतिहास को भी एक 'धर्मनिरपेक्ष' रंग में रंग दिया - ये हमारे देश को धर्मनिरपेक्षता की एक और देन है, जो अपने आप में एक बहुत बड़ा और पेचीदा विषय है ।

'धर्मनिरपेक्षता' या 'वसुधैव कुटुम्बकम्'

वैदिक सभ्यता का इतिहास देखें, तो भारतवर्ष (जो तत्कालीन अखण्ड-भारत के नाम से जाना जाता था) में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की संकल्पना की गयी है । ये संकल्पना आज के परिपेक्ष में धर्मनिरपेक्षता से कहीं ज़्यादा उपयोगी और प्रासंगिक है । आज तीन सौ साल पुरानी पश्चिमी सभ्यता हमें बहुसंस्कृतिवाद (Multiculturalism) और भूमंडलीकरण (Globalization) का ज्ञान देती है । जबकि देखा जाए तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जो हमारी ढाई-हज़ार साल पुरानी संकल्पना है , वो 'धर्मनिरपेक्षता' के तीन सौ साल पुराने नकली सोच से कहीं ज़्यादा सम्मिलित और विकसित है । और यही हमारे भारतवर्ष के वर्तमान परिपेक्ष में भी शत-प्रतिशत लागू होती है, क्यूंकि इससे ज़्यादा बहुलवादी (Plularist) और उदारवादी (Liberal) संकल्पना का विश्व भर में कहीं भी उल्लेख नहीं है । 

हमारे कुछ राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता को राजनीतिक छल-कपट से संवैधानिक मंज़ूरी देकर इस देश को हमेशा के लिए एक विवादात्मक चक्र में गिरफ्तार कर लिया है । लेकिन यदि व्यवहारिक और सामाजिक तौर पर हम 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के विचार का पालन करें तो धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक सीमा से कहीं ज़्यादा उपलब्धि की सम्भावना है । 

हो सकता है कि राजनीती करने वाले नेतागण, जिनका राजनीतिक व्यवसाय पूर्ण रूप से धर्मनिरपेक्षता की नकली बुनियाद पर आधारित है , और हमारे 'उपयोगी बेवकूफ' बुद्धू-जीवी ; 'धर्मनिरपेक्षता' को ' सेक्युलर ' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को 'सांप्रदायिक ' सोच के दायरे में भी परिभाषित करने की कोशशि करें । 

हमेशा की तरह , धर्म के ठेकेदार 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के विवरण को एक हिंदुत्ववादी वैदिक-दर्शन के संकीर्ण लेंस से दिखाने की कोशशि भी करेंगे लेकिन यदि हम इसे धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठ कर समझनें की कोशशि करें तो शायद हम सब अपने आपको 'विविधता-में-एकता' के एक खूबसूरत मंच पर पाएंगे । इस देश का नागरिक अपने साथ हिन्दू-सिख, हिन्दू-सनातनी, हिन्दू-जैन, हिन्दू-बौद्ध , हिन्दू-मुस्लमान या हिन्दू-ईसाई की पहचान लेकर चलता है । हम इसे इतना खुले रूप से अपने सामाजिक जीवन में स्वीकार ना करें लेकिन आज भी जब हमारे देश के मुस्लमान या ईसाई नागरिक देश से बाहर जाते हैं तो उन्हें Indian-Muslim या Indian-Christian के दायरे में रखा जाता है । इसका अर्थ ये हुआ कि हम किसी भी धर्म या संप्रदाय का पालन करें , लेकिन उसके ऊपर भी हमारी एक पहचान है , और वो है मूल रूप से हमारा हिंदुस्तानी (Indian) या भारतीय होना । यूरोप में अक्सर इसे INDU के नाम से भी जाना जाता है । 

'वसुधैव कुटुम्बकम्' : यही हमारी और भारतीय राष्ट्रवाद की असली परिभाषा है - बहुलवाद (Plularism), सहनशीलता (Tolerance), बहुसंस्कृतिवाद (Multiculturalism) , भूमंडलीकरण (Globalization) और 'विविधता में एकता' (Unity in Diversity) का एक खूबसूरत गुलदस्ता ।  


The world is a family
One is a relative, the other stranger,
say the small minded.
The entire world is a family,
live the magnanimous.

Be detached,
be magnanimous,
lift up your mind, enjoy
the fruit of Brahmanic freedom.
Maha Upanishad 6.71–75[7][3]


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